Tuesday, September 29, 2009

दहेज़

दहेज प्रथा ने आज सम्पूर्ण समाज को इतने प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया हैं कि व्यक्ति,परिवार तथा समाज के जीवन में विघटन की दशा उत्पन्न हो गयी हैं। इसका सबसे बडा़ दुष्परिणाम पारिवारिक विघटन के रूप में हमारे सामने आया हैं। जब कभी भी वर पक्ष को दहेज में इच्छित सम्पत्ति और उपहार प्राप्त नही होते तो इसके बदले नव-वधू को तरह- तरह से अपमानित किया जाता हैं। इससे नव दम्पत्ति का पारिवारिक जीवन विघटित हो जाना बहुत स्वभाविक हैं। दहेज प्रथा स्त्रियों की समाजिक स्थिति को गिराने वाला एक प्रमुख कारण सिद्ध हुई हैं। इसके कारण प्रत्येक परिवार में पुत्री के जन्म को एक भावी विपत्ति’ के रूप में देखा जाने लगा हैं। इसी कारण लड़कियों को पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में लड़्को के समान अधिकार प्राप्त नही हो पाते। दहेज व्यक्तियों में ऋणग्रस्तता की समस्या को अत्यधिक बढ़ावा दिया हैं। दहेज का प्रबंध करने के लिए अधिकांश व्यक्ति या तो ऋण पर निर्भर होते हैं या सम्पूर्ण जीवन अपने द्धारा उपार्जित आय का स्वतंत्रतापूर्वक उपयोग नही कर पाते। भारत में जैसे-जैसे दहेज प्रथा की समस्या गम्भीर होती जा रही हैं। नव विवाहित स्त्रियों द्धारा की जाने वाली आत्महत्याओं की संख्या भी बढ़ती जा रही हैं। यह समस्या समाज के सम्भ्रांत, समृद्ध और सशक्त वर्ग से सम्बंधित होने के कारण यह जानना भी कठिन हो जाता हैं कि ऎसी दुर्घटना को हत्या कहा जाय या आत्महत्या। जैसे- जैसे स्त्रियाँ दहेज के विरुद्ध जागरुक होती जा रही हैं, उनकी समस्या सुलझने के स्थान पर और अधिक जटिल बनती जा रही हैं। भारत में दहेज प्रथा उन्मूलन करने के लिए सरकार ने सन १९६१ में एक दहेज निरोधक अधिनियम लागू किया लेकिन असफल रहा। इस अधिनियम को अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के लिए सरकार ने सन १९८३ में कानून मे संशोधन किया इसके अतिरिक्त सरकार ने सन १९८५ में भी एक नया कानून बनाया जिसे ‘दहेज निरोधक अधिनियम १९८८’ कहा गया। यह सम्पूर्ण भारत में २ अक्टूबर १९८५ में लागू हो गया। इन सब प्रयत्नों के बाद भी यह हैं कि सरकार का कोई भी वैधानिक अथवा प्रशासकीय प्रयत्न दहेज की समस्या को कम नही कर सका। दहेज के इस कलंक को मिटाने के लिए समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन की आवश्यकता हैं। इस अभिशाप को मिटाने के लिए युवक और युवतियों को सजग होकर इसका विरोध करना चाहिए। इस दहेज रूपी दानव से युवक ही मुक्ति दिला सकते हैं यदि वे यह संकल्प कर ले कि हम बिना दहेज का विवाह करेंगे तो दहेज माँगनेवालो को कड़ी से कड़ी सजा दिला सकते हैं। इससे हमारे समाज से दहेज लोभी अवश्य दूर हो जायेंगे।है न...

Sunday, August 30, 2009

वॄक्ष

हमारी संस्कृति वन-प्रधान हैं। ॠग्वेद जो हमारी सनातन शक्ति का मूल हैं,वन देवियों की अर्चना करता हैं। मनु स्मॄति में वन-बिच्छेदक को पापी बतलाया गया हैं। अग्नि पुराण भी वॄक्ष की पूजा पर जोर देता हैं। वनो की छाया में हमने जन्म लिया और वही हमारा विकास हुआ। हमारे पूर्वज वनों के आर्थिक मह्त्व से भी परिचित थे। वे जानते थे कि वन हमारे आर्थिक जीवन की रीढ़ हैं। इस लिए वन को देवता समझ वे उसकी पूजा करते थे। एक दिन वह था जब आध्यात्मिक विकास के लिए सुन्दर स्थान जंगल ही समझा जाता था। साधु, संन्यासी दुनिया से विराग ले, ईश्वर प्राप्ति के लिए जंगलो में ही जाते थे। भारतीय इतिहास का बहुत बड़ा पॄष्ठ, भारतीय संस्कॄति का बहुत बड़ा अंग इन जंगलों के साथ संबंधित हैं। इन जंगलो के शांत वातावरण में ही हमारे अतीत की महानता सुरक्षित हैं। हमारे भोजन और हमारे स्वास्थ्य का अविरल स्रोत जंगल ही हैं। अपनी सुरक्षा के लिए जंगलो की सुरक्षा नितांत आवश्यक हैं। हमारे शरीर के स्वरूप का निर्माण पंचमहाभूतों-पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश तथा वायु के मिलने से हुआ। पृथ्वी से शरीर का मूर्त स्वरूप बना, जल उत्पत्ति का कारण हुआ, अग्नि, और आकाश सहायक तत्व रहे और वायु जीवित रहने का माध्यम हुई। प्रकृति प्रदत्त पेड़- पौधे, हरे- भरे वन सभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य के जीवन को प्रभावित करती हैं। पेड़- पौधो कोधरती के हरे फेफडे़कहा जाता हैं। ये दिन की धूप में अपना भोजन बनाने के दौरान मानव जीवन हेतु आक्सीजन छोड़ते हैं तथा कार्बन-डाई-आक्साइड गैस ग्रहण करते हैं। पेड़- पौधे जल के भी अच्छे संग्राहक हैं।वनों ने अनेक जीवनदायिनी औषधियों को सुरक्षित रखकर उनका संर्वधन करके मानव के स्वास्थ्य में अपना महत्वपूर्ण योगदान किया हैं। यदि इनकी सुरक्षा की जाये तो मानव- जीवन खतरे में पड़ जायेगा। पेड़ हमारे आदिम पूर्वजों के पडो़सी, सहचर रहे हैं। वे आज भी उसी हालत में है जैसे पहले हमारे साथ थे लेकिन हम सभी आज उन्ही पेडो़ से शत्रुता नफरत करते जा रहे हैं। फिर उन बेचारे पेडो़ में वनो में किसी भी प्रकार का परिर्वतन नही हुआ।ये हमें फल, फूल, छाया, हवा, ईधन, आवास-निवास एवं सही जीवन देते हैं। इसके बदले हम उनको उजाड़ते हैं लेकिन धरती का हर पेड़ किसी किसी प्रकार से अपना अलग ही महत्व रखता हैं। घास-फूस तो जडी़ बूटियां हैं। अत: धरती पर जन्मी सभी वस्तुएं रक्षणीय और पूजनीय हैं। हमें उनकी रक्षा करनी चाहिए।...........

पेड़ होता नही तो पवन भी नही।
ये धरा भी नहीं ये चमन भी नही।
पेड़ ही से पवन शुद बहता सदा।
शुद्ध होता है पर्यावरण आपका
पेड़ से ही बरसते हैं बादल सभी।
और इनकी वजह से है बहती नदी।
अन्न देते हमें, फल ये देते हमें।
आओ हम मिल के पेड़ों की रक्षा करें।

Monday, July 27, 2009

समाज का प्रतिबिम्ब

साहित्य समाज का वह परिधान है जो जनता के जीवन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद, आकर्षण-विकर्षण के ताने-बाने से बुना जाता है। वह जीवन की व्याख्या करता है, इसी से उसमें जीवन देने की शक्ति आती है। वह मानव को, उसके जीवन को लेकर ही जीवित है, इसलिये वह पूर्णत: मानव-केन्द्रित हैं। मानव सामाजिक प्राणी है। सामाजिक समस्याओं, विचारों तथा भावनाओं का जहाँ वह स्रष्टा होता है, वही वह उनसे स्वयं भी प्रभावित होता हैं। इसी प्रभाव का मुखर रूप साहित्य हैं। साहित्य का अर्थ हैं- जो हित सहित हो।भाषा द्वारा ही साहित्य हितकारी रूप में प्रकट होता हैं। उसी के द्वारा मानव-समाज में एक दूसरे के सुख-दुख में भाग लेने का सहकारिता का भाव उत्पन्न होता हैं। साहित्य मानव के सामाजिक सम्बंधों को और भी दॄढ बनाता हैं, क्योंकि उसमें सम्पूर्ण मानव जाति का हित सम्मिलित रहता हैं। साहित्य साहित्यकार के भावों को समाज में प्रसारित करता हैं जिससे सामाजिक जीवन स्वयं मुखरित हो उठता हैं।साहित्य का आन्नद लेने के लिए हमें सतोगुणात्मक वृत्तियों में रमने का अभ्यास हो जाता हैं। साहित्य सेवन से मनुष्य की भावनाएँ कोमल बनती हैं।उसके भीतर मनुष्यता का विकास होता हैं, शिष्टता और सभ्यता आती हैं। आप आँख दिखाकर किसी को वश में नही कर सकते। केवल मधुर और कोमल वाणी ही ह्दय पर प्रभाव डालती हैं और उसके द्वारा आप दूसरों से मनचाहा कार्य करा सकते हैं। तुलसी भी इस बात को स्वीकार करते हैं---

तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर।
वशीकरण इक मंत्र हैं,परिहर वचन कठोर॥

साहित्य का कान्ता-सम्मित मधुर उपदेश बडा प्रभावकारी होता हैं। केशव के एक छंद ने बीरबल को प्रसन्न कर राजा इन्द्रजीत सिंह पर किया हुआ जुर्माना माफ करवा दिया था। बिहारी के एक दोहे ने राजा जयसिंह का जीवन बदल दिया था। इस प्रकार साहित्य हमारे बाहय और आन्तरिक जीवन को निरन्तर प्रभावित करता रहता हैं। समाज और साहित्य का सम्बंध अनादि काल से चला आ रहा हैं। बाल्मिकी ने अपनी रामायण में एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था का चित्रण कर अपने दृष्टिकोण के अनुसार समाज के विभिन्न पहलुओं की विवेचना करते हुए यह सिद्व किया कि मानव- समाज किस पथ का अनुसरण करने से पूर्व संतोष और सुख का अनुभव कर सकता हैं। तुलसी ने भी अपने समय की सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर रामराज्य और राम परिवार को मानव समाज के सम्मुख आदर्श रूप में प्रस्तुत किया। अत: साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब हैं।

Saturday, July 11, 2009

आशा

आशा सदा हमारे साथ है। दुखमय संसार में आशा ही वह चीज हैं जिसके बल पर मनुष्य जीता हैं।हम दुख सहते हैं, कष्ट झेलते हैं, मुसीबतो का सामना करते हैं, इसी आशा पर कि एक दिन सुख आयेगा। यही आशा हमारी जिन्दगी हैं। जिस दिन वह साथ छोड देगी उस दिन हम दुनिया का साथ छोड देगे। ईश्वर ने जब विश्व की रचना की तो उन्होने दुख के समय मनुष्य को ढाढस बँधाने के लिए अपनी प्रिय पुत्री आशा को भेज दिया। संसार में कोई भी सुखी नही हैं। सभी सुख की खोज में हैं, पर आज तक किसी ने उस वस्तु को पाया नही। सभी को किसी न किसी वस्तु की कमी खटकती रहती हैं- राजा हो या रंक। किसी को रूपये की चिन्ता हैं तो किसी को पुत्र की। किसी को रोग की चिन्ता हैं तो किसी को राजपाट की। चिन्ता-विहीन कोई नही हैं। हर कष्ट सहते हुए भी हम जीना चाहते हैं क्योंकि आशा सदा हमारे साथ हैं। आशा से अलग होकर हममें वह शक्ति नही रह जाती कि हम दुनिया की वास्तविकता का मुकाबला कर सके। जब हम परेशान होते हैं,आशा हमें धीरज बँधाती हैं, जब हम निरुत्साहित होने लगते हैं, आशा हमें उत्साहित करती हैं। आशा जिस दिन दुनिया से रूठ जायेगी, दुनिया मनुष्यों से खाली हो जायेगी । आशा से ही मनुष्य कष्ट्मय दुनिया में रहकर भी सुख का अनुभव करता हैं। आशा कहती हैं अतीत से सबक लो और भविष्य के लिए तैयारी करो।आशा का प्रबल शत्रु निराशा हैं। आशा और निराशा के बीच सदियों से द्वन्द्व चलता रहा हैं। आशा प्रकाश हैं तो निराशा अंधकार। आशा मनुष्य को भविष्य का सपना दिखलाकर वर्तमान तथा अतीत की चिन्ता से दूर ले जाती हैं तो निराशा मनुष्य को चिन्ता के गड्ढे में ढकेल देती हैं फिर भी निराशा के बीच मनुष्य को जीने की शक्ति आशा ही देती हैं। मनुष्य के जीवन में आशा ही एकमात्र प्रकाश हैं जिससे वह आगे बढता जाता हैं।

Saturday, July 4, 2009

स्त्री

हम खाते हैं भूख मिटाने के लिए, वस्त्र धारण करते हैं लज्जा निवारण के लिए, आराम करते हैं थकावट दूर करने के लिए। हमारा प्रत्येक कार्य किसी खास तात्पर्य से होता हैं फ़िर हमारा जीवन तात्पर्य विहीन क्यों हो?ये सभी जीवन के लिए आवश्यक हैं, पर जीवन स्वयं किस लिए है? इस जीवन का एक लक्ष्य होना चाहिए, एक ध्येय होना चाहिए। लक्ष्य का निर्माण करना सहज हैं पर ल्क्ष्य को प्राप्त करना कठिन।हो सकता हैं लक्ष्य प्राप्ति के लिए हमें आजीवन परिस्थितियों से लड़ना पडे़, हो सकता हैं हमें विकट रास्ते से गुजरना पडे़, आत्मीयजन साथ छोड़ दे। अपना कहलाने वाले पराया बन जाय, लोग छीटा-कसी करे, हमारे पैर लड़खड़ाए,कुछ दिनो तक निराशा के सिवा कुछ हाथ न लगे। पर हमें साहस और धैर्य नही खोना चाहिए। आगे चलकर पीछे नही मुड़ना चाहिए। हमारे पास सच्ची लगन हैं तो अन्त में हमें सफलता अवश्य मिलेगी।मैं दुनिया से निर्लिप्त रहकर आत्मोन्नति करना चाहती हूँ, आत्म विकास करना चाहती हूँ। मैं सदा अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखने की चेष्टा करती हूँ, क्यों कि मैं जानती हूँ कि आज के युग में पग-पग पर प्रलोभन हैं,वासना को उभारने वाली चीजे हैं, स्कूली पुस्तक से लेकर फिल्मो के कथानक और रेडियों के गीतो तक में श्रींगार रस की प्रधानता हैं जबकि मैं महसूस करती हूँ कि इसके लिए शान्त और स्वच्छ वातावरण और सात्विक भोजन की आवश्यकता होगी। आज की शिक्षा से मैं असन्तुष्ट हूँ। मुझे ऎसी शिक्षा की आवश्यकता हैं जो आत्मिक विकास में सहायक हो, हमारे सदगुणो को जगाये। मैं जानती हूँ कि दुनिया मुझे कहेगी कि तुम कठिनाइयों से डर कर भाग रही हो। यह दुनिया कर्मभूमि हैं,यहा कायरों के लिए स्थान नहीं। मुझे कठिनाइयों से भय नही, बाधाओं से घबराती नहीं, डर हैं तो आज के पतित दुनिया के प्रति।मैं दुनिया नही छोड़ना चाहती बल्कि दुनिया के दुर्गुणो पर विजय पाने की शक्ति प्राप्त करना चाहती हूँ। मैं कर्म से नही डरती,कर्तव्य से नही भागती बल्कि चाहती हूँ त्याग और तपस्या की अग्नि में जलकर दुनिया के समक्ष एक उदाहरण बनूं ।वह देश, वह समाज, वह व्यक्ति सभ्य नहि कहला सकता जिसने स्त्रियों का आदर न किया हो। पुरुष देश की बाहु हैं तो स्त्री देश का ह्दय। एक को भी खोकर देश सबल नही रह सकता।पुरुष द्वार का रौनक हैं तो स्त्री घर का चिराग। आज हमारे घरो में चिराग हैं पर उसमें तेल नही। दोष हैं हमारे समाज का। हमारे समाज के लोग कह्ते हैं ,स्त्री-शिक्षा पाप हैं । लोग कहते हैं , वेद कहता हैं, पुराण कहता हैं नही ,ये वही लोग कहते हैं जो वेद और शास्त्र शब्द को शुद्व लिख भी नही सकते।अत: जिस तरह पुरुष शिक्षा आवश्यक है उसी तरह स्त्री शिक्षा भी अनिवार्य हैं। यह आवश्यक नही कि हमारे देश की स्त्रियाँ भी अन्य देशो की स्त्रियों की तरह नौकरी करने के लिए ही पढे।
जीवन क्षेत्र का विभाजन प्रमुखत: दो भागों में किया जा सकता हैं- घर और बाहर। दोनो का महत्व समान होते हुए भी पहला घर हैं। क्यों कि घर की उन्नति पर ही बाहर की उन्नति निर्भर करती हैं। घर की देख-रेख करना साधारण काम नही हैं बल्कि इसमें अधिक धैर्य और सहनशीलता की आवश्यकता होती हैं। पुरुष इतना त्याग नही कर सकते। लोग कहते हैं कि बच्चे पालना और रसोई करना बेकार काम है, उन्हें एक नौकरानी कर सकती हैं लेकिन मैं कहती हूँ बच्चे पालना और रसोई बनाना दुनिया के सभी कामों में महान काम हैं।ये वे काम हैं जिन पर किसी का बनना-बिगड़ना निर्भर करता हैं। नौकरी करने वाली स्त्री सिर्फ अपना भाग्य निर्माण कर सकती हैं, सिर्फ अपने आपको दूसरो की निगाह में ऊँचा उठा सकती हैं, पर घर में काम करने वाली शिक्षित स्त्री देश का भाग्य निर्माण कर सकती हैं। स्वयं छिपे रहकर बहुतो को प्रकाश में ला सकती हैं।घर का खाना स्वादिष्ट इस लिए होता हैं कि उसमें स्नेह के कण मिले रहते हैं। घर की स्वामिनी ही अपने पति की स्वामिनी होती हैं। जिसने घर पर अपना कब्जा न किया वह पति पर क्या कब्जा कर सकती हैं।अगर पढी लिखी स्त्रियाँ दूसरे के नौकरी की अपेक्षा अपने घर की ,अपने बच्चो की देखभाल करे तो मेरा विश्वास हैं कि एक के चलते अनेको का सुधार हो जायेगा और घर का ही दूसरा नाम स्वर्ग पड़ जायेगा।

Wednesday, June 10, 2009

नारी वेदना/कंचनलता चतुर्वेदी

फूलों जैसे पलकों से मैं,
कांटे रोज़ चुना करती हूँ।
गीत सुनाकर गजल सुनाकर,
तुमसे मैं पूछा करती हूँ।

कर कमलो से अपने ही मैं,
फूलों की हूँ सेज सजाती।
नयनों में आँसू है फिर भी,
तुम पर अपना प्यार लुटाती।

बंधी पाँव में बेड़ी जबसे,
इसको खोल नहीं सकती हूँ।
मन में कितना दर्द छिपा है,
लेकिन बोल नहीं सकती हूँ।

ये जीवन सोने का पिज़डा़
पंछी बनी तड़पती हूँ मैं।
दुनिया के सब नाते टूटे,
तन्हा-तन्हा रहती हूँ मैं।

गज़ल नहीं यह गीत नहीं यह,
मेरी व्यथा कहानी है ये।
जीवन में बस दुख ही दुख है,
आँखो में बस पानी है ये।